जब आस्था ग़ुलामी बन जाए
एक बेबाक नज़र आज के मुसलमान की दीनदारी पर
किसी ज़माने में कहा जाता था कि इस्लाम दीन-ए-फ़ितरत है, दीन-ए-अक़्ल है। अल्लाह ने इंसान को आँखें दीं, कान दिए, और सबसे बड़ी नेमत—अक़्ल दी, ताकि वह सोचे, समझे, ग़ौर करे और फिर यक़ीन करे।
लेकिन आज अगर आप दुनिया के 99% मुसलमानों के घरों में झाँकें, मदरसों में जाएँ, मसजिदों के जुमे सुनें, या सोशल मीडिया पर बहस देखें, तो एक ही तस्वीर उभरती है:
अल्लाह गायब है।
रसूल 1400 साल पहले चले गए।
क़ुरआन अरबी में है और उसका मतलब भी किसी को नहीं मालूम।
फिर भी हर मुसलमान को “पक्का यक़ीन” है कि इस्लाम हक़ है।
यह यक़ीन आता कहाँ से है?
एक शब्द में जवाब है: मौलाना।
सात सवाल जो कोई मुसलमान सहज भाव से “हाँ” में जवाब नहीं दे सकता
1. क्या आपने अल्लाह को कभी अपनी आँखों से देखा या उसकी आवाज़ सुनी?
→ नहीं।
2. क्या आपने उस शख़्स को देखा जिसने अल्लाह से बात करने का दावा किया—यानी हज़रत मुहम्मद को?
→ नहीं।
3. क़ुरआन की क्लासिकल अरबी आपको आती है? क्या आप बिना किसी तरजुमे या तफ़्सीर के सूरह अल-बक़रा की आयत 2:255 (आयतुल कुर्सी) का पूरा मतलब और उसकी तफ़्सीली शान-ए-नुज़ूल खुद बता सकते हैं?
→ नहीं। (यहाँ तक कि सबसे बड़े-बड़े मौलाना और मुफ़्ती भी एक-दूसरे की तफ़्सीर को ग़लत ठहराते हैं और कुफ़्र तक पहुँचा देते हैं।)
4. क्या आपने कभी एक भी किताब-ए-हदीस (सहीह बुख़ारी, सहीह मुस्लिम, अबू दाऊद, तिरमिज़ी, निसाई, इब्ने माजा) पूरी पढ़ी है—ख़ुद से, बिना किसी मौलाना के लेक्चर के?
→ 99.9% लोगों का जवाब: नहीं।
5. क्या आपने कभी कोई मुकम्मल तफ़्सीर (तफ़्सीर-ए-तबरी, इब्ने कसीर, जलालैन, बग़वी, कुरतुबी आदि) शुरू से आख़िर तक पढ़ी है?
→ नहीं।
6. क्या आपने इस्लाम की कोई प्रामाणिक तारीख़ी किताब पढ़ी है—जैसे अल-बिदाया वन-निहाया (इब्ने कसीर), तारीख़-ए-तबरी, सीरत इब्ने हिशाम, ज़ादुल मआद, अल-कामिल फित तारीख़ आदि?
→ नहीं। एक किताब का नाम भी मुश्किल से बता पाते हैं।
7. अंतिम और सबसे ख़तरनाक सवाल:
अगर कल कोई शख़्स आपके सामने सहीह बुख़ारी की हदीस लेकर आए और कहे कि “नबी साहब ने यह फ़रमाया था”, तो क्या आप उस हदीस को तुरंत मान लेंगे, या पहले अपने फिरके के मौलाना से पूछेंगे कि “मौलाना साहब! यह हदीस माननी चाहिए या नहीं?”
→ जवाब सबको मालूम है: पहले मौलाना साहब की मंज़ूरी चाहिए।
यानी नबी का कलिमा भी तब तक हक़ नहीं होता जब तक मौलाना साहब “हाँ” न कह दें।
असली माबूद कौन है?
इसलिए सच यह है कि आज का आम मुसलमान:
– अल्लाह को नहीं मानता → मौलाना की बात को अल्लाह की बात मानता है
– रसूल को नहीं मानता → मौलाना की बात को रसूल की बात मानता है
– क़ुरआन को नहीं समझता → मौलाना की बताई हुई तफ़्सीर को क़ुरआन समझता है
– हदीस को नहीं पढ़ता → मौलाना के फ़ेसबुक स्टेटस को हदीस समझता है
नमाज़ का वक़्त? मौलाना का कैलेंडर
रोज़े की सेहरी-इफ़्तार? मौलाना का ऐलान
चाँद दिखा या नहीं? मौलाना की कमेटी
निकाह, तलाक़, मीरास, हज, क़ुर्बानी, जनाज़ा—हर चीज़ में अल्लाह और रसूल ख़ामोश हैं। बोलता सिर्फ़ मौलाना है।
फिरके का जादू
सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि यही मौलाना भी एक नहीं, हज़ार हैं।
देवबंदी मौलाना अलग फ़तवा देगा, बरेलवी अलग, अहले-हदीस अलग, शिया अलग, इस्माइली अलग।
और हर फिरके का मुसलमान पहले अपने मौलाना की बात मानेगा, भले ही सामने सहीह बुख़ारी खुली पड़ी हो।
यानी ईमान का पैमाना न क़ुरआन रहा, न हदीस रही, न नबी का तरीक़ा रहा—ईमान का पैमाना बन गया “हमारा मौलाना”।
नतीजा?
आज का मुसलमान दीन के नाम पर एक बहुत बड़ा कारोबार चला रहा है—जिसका मालिक वह खुद नहीं, बल्कि मौलाना है।
मसजिदें बनती हैं, लेकिन चंदा मौलाना लेता है।
मदरसे चलते हैं, लेकिन सिलेबस मौलाना तय करता है।
फ़तवे बिकते हैं, जन्नत की पर्चियाँ कटती हैं, और आम मुसलमान ख़ामोश रहता है—क्योंकि “मौलाना साहब बेहतर जानते हैं”।
आख़िरी सवाल
अल्लाह ने क़ुरआन में बार-बार कहा:
أَفَلَا تَعْقِلُونَ ۔ أَفَلَا تَتَفَكَّرُونَ ۔ أَفَلَا تَتَدَبَّرُونَ
“क्या तुम अक़्ल नहीं रखते? क्या तुम ग़ौर नहीं करते? क्या तुम तदब्बुर नहीं करते?”
लेकिन हमने अक़्ल को मौलाना के हवाले कर दिया।
हमने तदब्बुर को यूट्यूब के मौलाना के लेक्चर के हवाले कर दिया।
और हमने अपनी ज़िम्मेदारी यह कहकर टाल दी कि “हम तो ग़रीब अवाम हैं, मौलाना साहब जानते हैं”।
जब तक आप खुद नहीं पढ़ेंगे,
खुद नहीं समझेंगे,
खुद नहीं सोचेंगे—
तब तक आप खुदा के बंदे नहीं,
मौलानाओं के गुलाम बने रहेंगे।
और यही सबसे बड़ा सबूत है कि आज जो इस्लाम आम मुसलमान के ज़हन में है,
वह अल्लाह का इस्लाम नहीं,
मौलानाओं का बनाया हुआ एक डरावना, महँगा और बँटा हुआ ब्रांड है।
अब भी वक़्त है।
अपनी अक़्ल को आज़ाद कीजिए।
क्योंकि खुदा ने गुलाम नहीं,
आज़ाद सोच वाले बंदे पैदा किए थे।





