क्या तुम्हारा मज़हब सच में तुम्हारा है?

क्या तुम्हारा मज़हब सच में तुम्हारा है?

कभी एक पल को रुककर गहराई से सोचा है कि
जिस मज़हब के लिए तुम जीते हो, मरते हो, और कभी-कभी दूसरों को मारने को भी तैयार हो जाते हो — वह मज़हब तुमने कभी खुद चुना था?
तुम शायद तुरंत कहोगे,
“हाँ, मैंने तो किताबें पढ़ीं, रिसर्च की, दिल से अपनाया।”
ठीक है। लेकिन सच में? बहुत सच में?
अब जरा पीछे चलो। बहुत पीछे।
तुम्हारे माता-पिता से तुम्हें बहुत कुछ विरासत में मिला —
घर, संपत्ति, नाम, संस्कार… और एक चीज़ जो कोई नोटिस तक नहीं करता:
तुम्हारा मज़हब।
जब तुम इस दुनिया में आए, पहले कुछ घंटे, शायद कुछ दिन —
तुम सिर्फ़ एक इंसान थे।
न हिंदू, न मुस्लिम, न ईसाई, न सिख।
न तुम्हें मज़हब का मतलब पता था, न उसकी ज़रूरत।
तुम्हारी कोई मर्ज़ी नहीं थी। कोई राय नहीं थी।
फिर शुरू हुआ खेल।
रिश्तेदार आए। किसी ने कान में अज़ान दी।
तुम चुप थे। कुछ समझ नहीं आया।
फिर एक दिन तुम्हारा नाम रखा गया —
और नाम के साथ ही तुम्हारा मज़हब भी हमेशा के लिए तय कर दिया गया।
बिना तुमसे पूछे। बिना तुम्हारी इजाज़त के।
तुम अभी बोल भी नहीं सकते थे कि “रुकिए, मुझे सोचने दीजिए।”
फिर रस्में शुरू हुईं — अक़ीक़ा, खतना आदि।
तुम रोए, लोग हँसे। सब खुश थे कि
“बच्चे का मज़हब सुरक्षित हो गया।”
बचपन में तुम्हें कहानियाँ सुनाई गईं —
नूह की कश्ती, इब्राहीम का बलिदान, मूसा का सागर चीरना, ईसा का चमत्कार, मुहम्मद साहब का मिराज।
तुमने पूछा, “ये सच है?”
बड़ों ने कहा, “हाँ बेटा, सिर्फ़ यही सच है। बाकी सब झूठ है।”
तुमने यकीन कर लिया। क्योंकि तुम छोटे थे।
क्योंकि तुम्हारे पास दूसरी कोई कहानी सुनाने वाला नहीं था।
तुम्हें मस्जिद ले गए, मदरसे भेजा, मौलाना के सामने बिठाया।
तुमने देखा — सब एक ही किताब पढ़ रहे हैं, एक ही तरह सजदा कर रहे हैं।
तुमने भी वही किया।
क्योंकि सब कर रहे थे।
क्योंकि तुम्हें यही बताया गया कि यही सही है।
तुमने कभी सवाल नहीं किया — “क्यों?”
क्योंकि सवाल करने की इजाज़त ही नहीं थी।
और आज…
आज तुम बड़े हो गए हो।
अब तुम उसी मज़हब के लिए लड़ते हो, बहस करते हो, गालियाँ देते हो,
कभी-कभी हथियार तक उठा लेते हो।
उसी मज़हब के लिए… जिसे तुमने कभी चुना ही नहीं।
जो तुमने 0 से 12 साल की उम्र तक —
बिना समझे, बिना सोचे, बिना किसी दूसरी जानकारी के —
बस इसलिए मान लिया था क्योंकि तुम्हारे माँ-बाप का वही मज़हब था।
सोचो। सचमुच एक बार सोचो।
क्या वह मज़हब तुम्हारा अपना है?
या सिर्फ़ एक विरासत है — जैसे पुराना घर, पुराना नाम, पुरानी दुकान?
तुम उसे छोड़ नहीं सकते — क्योंकि यह तुम्हारी पहचान बन चुका है।
तुम उसे बदल नहीं सकते — क्योंकि इसके साथ तुम्हारा परिवार, समाज, इज़्ज़त सब जुड़ा है।
तुम उसे परख भी नहीं सकते — क्योंकि बचपन से सिखाया गया है:
“सवाल मत करो… बस यकीन करो।”
तो बताओ…
जो चीज़ तुमने कभी खुद नहीं चुनी,
जिसे तुमने कभी समझा तक नहीं,
उसी के लिए तुम आज मरने-मारने को तैयार हो?
क्या वह सच में तुम्हारा है?
या तुम बस…
अपने माता-पिता के मज़हब के गुलाम बन गए हो?