मुहम्मद जब अपना नया दीन बना रहे थे तो उन्होंने यहूदियों-ईसाइयों से खूब उधार लिया। एक अल्लाह, नबी, फरिश्ते – सब कुछ वहीं से चुराया। लेकिन अरबों में पकड़ बनाने के लिए काबा और हज को भी दीन में डाल दिया, क्योंकि ये चीजें अरबों के दिल में पहले से बसती थीं।
एक पुरानी अरबी रस्म थी – बारह महीनों में से चार महीने “हराम” (पवित्र) रखते थे। इन चार महीनों में लड़ाई और कारवानों को लूटना मना था। वजह? कारोबार। इन चार महीनों में कारवां बिना डर के आ-जा सकते थे, व्यापार फलता-फूलता था।
ये रस्म खुद अरबों ने अपने फायदे के लिए बनाई थी, फिर बाद में अपने बुतों पर थोप दी कि “बुतों ने हुक्म दिया है कि इन महीनों में खून न बहाओ”।
अरब चंद्र कैलेंडर (लूनर कैलेंडर) पर चलते थे। ये कैलेंडर सूरज के साल से 10-11 दिन छोटा होता है। नतीजा? हज कभी भयंकर गर्मी में, कभी सर्दी में पड़ता। व्यापार का माल भी मौसम पर निर्भर था – मौसम बिगड़ता तो कारोबार चौपट।
यहूदियों का भी चंद्र कैलेंडर था, लेकिन उन्होंने इसकी खामी समझी और हर तीन साल में एक अतिरिक्त महीना जोड़कर इसे सूरज के साल से मिला दिया। जाहिलियत के अरबों ने भी यहूदियों से ये तरकीब सीखी और चार हराम महीनों को मौसम के हिसाब से आगे-पीछे कर लेते थे ताकि हज और व्यापार अच्छे मौसम में हो।
लेकिन कुरान लिखने वाले (मुहम्मद) ने न सिर्फ खराब चंद्र कैलेंडर को ज्यों का त्यों रखा, बल्कि हराम महीनों को आगे-पीछे करना भी हराम कर दिया।
कुरान 9:36-37 “अल्लाह के नज़दीक महीनों की गिनती बारह है – जिस दिन से उसने आसमान और ज़मीन बनाए, उनमें से चार हराम हैं। यही सीधा दीन है… इन महीनों को आगे-पीछे करना कुफ्र में इज़ाफ़ा है।”
चूंकि आसमान पर कोई सर्वज्ञ अल्लाह मौजूद नहीं था और मुहम्मद खुद जाहिलियत के उस कल्चर से थे, इसलिए कुरान में ये दोहरी गलती हो गई:
- पहली गलती – खराब चंद्र कैलेंडर को अपनाया, सूरज के कैलेंडर को नहीं (जो उस ज़माने में दुनिया में पहले से मौजूद था, लेकिन अरबों को इसका इल्म नहीं था)।
- दूसरी गलती – दावा किया कि ये 12 महीने कायनात की पैदाइश के दिन से चल रहे हैं।
अरे भाई, कायनात के शुरू में तो न ज़मीन थी, न चाँद, न दिन-रात, न महीने-साल। ज़मीन 9 अरब साल बाद बनी, चाँद उससे भी बाद में। तो “कायनात का सिस्टम” शुरू से 12 चंद्र महीनों पर कैसे चल रहा था?
सूरज का साल भी कायनात की पैदाइश से कोई ताल्लुक नहीं, क्योंकि सूरज भी बाद में बना।
चार महीने हराम क्यों किए?
1400 साल से मुसलमान पूछते हैं – ये चार महीने (ज़ुल-क़ादा, ज़ुल-हिज्जा, मुहर्रम, रजब) खास क्यों? रमज़ान इनमें शामिल भी नहीं।
तीन महीने लगातार आते हैं – हज के कारवानों के लिए। रजब में उमरा के कारवां जाते थे।
जाहिलियत में कबीले कारवानों को लूटते थे। चार महीने “ट्रूस” रखते थे ताकि व्यापार चलता रहे। इस्लाम आने के बाद सारा अरब एक सूबे में आ गया – लूट बंद। फिर चार महीने हराम रखने की ज़रूरत ही क्या थी?
अगर सचमुच अल्लाह होता तो पूरे 12 महीने हराम करता – साल भर खून और लूट मना। केवल चार महीने हराम और बाकी आठ में लूट-खसोट जायज़? ये कौन-सी हिकमत है?
पैरोकारों का बहाना: “चंद्र कैलेंडर इसलिए चुना ताकि आदतें टूटें”
कहते हैं – अल्लाह ने जान-बूझकर चंद्र कैलेंडर चुना ताकि हज कभी गर्मी, कभी सर्दी में आए – इंसान की आदतें टूटें।
ये बहाना खुद अल्लाह ने नहीं दिया – बाद के पैरोकारों ने गढ़ा। फिर मौसम भी तो हर साल दोहराते हैं? फसलें भी मौसम के हिसाब से उगती हैं? परिंदे भी सूरज के साल से ही माइग्रेट करते हैं? फिर प्रकृति में दोहराव बुरा कैसे हो गया?
प्रकृति में दोहराव भी ज़रूरी है और बदलाव भी। दिन लंबे-छोटे होते हैं, नमाज़ के वक़्त बदलते हैं। लेकिन सालाना चीजें एक ही मौसम में होती हैं – ताकि ज़िंदगी चलती रहे। प्रकृति से लड़ोगे तो फसलें चौपट, कारोबार चौपट।
हफ्ते का सिस्टम भी चोरी का माल
चंद्र महीने को चार हफ्तों में बाँटना गणितीय तौर पर नामुमकिन है – 29.53 दिन। सुमेरी-बेबीलोनी कल्चर से आया, 21वीं सदी ईसा पूर्व का। चाँद के चार फेज़ देखकर सात-सात दिन के हफ्ते बनाए।
यहूदियों ने शनिवार को मुकद्दस बनाया, इस्लाम ने जुमे को। मुहम्मद का दावा: **सहीह मुस्लिम 856b “हमको जुमे की हिदायत मिली, हमसे पहले वालों से ये छिन गई।”
सहीह मुस्लिम 854b “सबसे अच्छा दिन जिस पर सूरज निकला – जुमुआ है। इसी दिन आदम पैदा हुए, जन्नत में दाखिल हुए, निकाले गए और क़यामत भी जुमे को होगी।”
नतीजा
चंद्र कैलेंडर को जकड़ना और हराम महीनों को फिक्स कर देना – ये जाहिलियत की निशानियाँ हैं, कोई दैवीय हिकमत नहीं। यहूदियों ने अपना चंद्र-सौर कैलेंडर ठीक किया था। जाहिल अरबों ने भी मौसम के हिसाब से महीने सरकाने शुरू कर दिए थे। लेकिन कुरान ने इसे “कुफ्र में इज़ाफ़ा” कहकर हमेशा के लिए रोक दिया। नतीजा? हज कभी 50 डिग्री गर्मी, कभी हिमालय जैसी ठंड में।
“कायनात की पैदाइश से 12 चंद्र महीने” वाला दावा? हँसी की बात। कायनात में अरबों साल तक न ज़मीन थी, न चाँद।
ये कोई अल्लाह की हिकमत नहीं – एक जाहिल इंसान की पुरानी रस्मों का बोझ है जो आज भी 1.8 अरब लोगों पर लादा जा रहा है।





