1937 से 2025 तक: वही पुराना विभाजनकारी वायरस
“वंदे मातरम् के टुकड़े करके कांग्रेस ने देश के विभाजन के बीज बोए थे”
– ये शब्द प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हैं, जो उन्होंने दिसंबर 2025 में संसद में बोले।
सच है या नहीं, ये इसकी खोज करते हैं, लेकिन एक बात निर्विवाद है – वंदे मातरम् आज भी देश का सबसे बड़ा लिटमस टेस्ट बना हुआ है।
क्या वाकई कांग्रेस ने “मुस्लिम तुष्टिकरण” के लिए गीत काटा था?
हाँ, काटा था।
1937 में कांग्रेस वर्किंग कमिटी ने पहले दो ही स्तरोत (stanza) को राष्ट्रीय गान के रूप में स्वीकार किया, बाकी चार हटा दिए गए।
आधिकारिक वजह: “मुस्लिम सदस्यों को कुछ पंक्तियों से आपत्ति थी”।
जवाहरलाल नेहरू और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद इस फैसले में शामिल थे।
तो हाँ – “तुष्टिकरण” हुआ था।
आज कौन-कौन “शिर्क” का रोना रो रहा है?
1. मौलाना महमूद मदनी (जमीयत उलेमा-ए-हिंद)
→ “मर जाना मंज़ूर, शिर्क नहीं”
→ “जब-जब जुल्म होगा, तब-तब जिहाद होगा”
→ “डरेंगे नहीं – मुकाबला करेंगे, इंशा अल्लाह”
2. असदुद्दीन ओवैसी
→ “हम अपनी माँ की इबादत नहीं करते, कुरान की इबादत नहीं करते, तो भारत माता की कैसे करें?”
3. इकरा हसन (सपा सांसद)
→ “हम मुसलमान भारतीय चॉइस से हैं, चांस से नहीं”
सबसे खतरनाक बात: ये बयान संसद के अंदर और बाहर एक साथ आए।
ये सिर्फ़ गीत का विरोध नहीं, एक पूरा नैरेटिव है – हम अलग हैं, हम रहेंगे अलग।
इकरा हसन से एक सवाल
आप कहती हैं – “चॉइस से भारतीय हैं”।
ठीक है।
लेकिन 1947 में आपके पूर्वजों ने चॉइस से पाकिस्तान माँगा था।
जो लोग भारत में रह गए, उनकी चॉइस थी या मजबूरी?
आज वही लोग अगर फिर “अलग पहचान” का झंडा उठाएँ, तो क्या 1947 का घाव फिर कुरेदा नहीं जा रहा?
डॉक्टर आंबेडकर ने पहले ही चेता दिया था
आंबेडकर ने “Pakistan or the Partition of India” किताब में साफ़ लिखा:
“इस्लाम अपने अनुयायी को कभी ये स्वीकार नहीं करने देगा कि भारत उसकी मातृभूमि है और हिन्दू उसके भाई हैं।”
“मुस्लिम केवल उसी क्षेत्र को अपना देश मानेगा जहाँ इस्लाम का शासन हो।”
ये बातें 1940 में लिखी गई थीं।
80 साल बाद भी शब्द-दर-शब्द सही साबित हो रही हैं।
दुखद यह है कि आज आंबेडकर को अपना बताने वाले लोग इन पंक्तियों पर ख़ामोश हैं।
दोहरा मापदंड क्यों?
- पाकिस्तान का राष्ट्रगान: “पाक सरज़मीन शाद बाद” – इसमें ज़मीन को आशीर्वाद दिया जाता है। कोई शिर्क नहीं।
- इंडोनेशिया का राष्ट्रगान: “इंडोनेशिया राया” – देश को माँ कहा जाता है। कोई फतवा नहीं।
- तुर्की, मिस्र, मलेशिया – सभी मुस्लिम बहुल देशों में राष्ट्रगान हैं।
फिर भारत में ही “भारत माता” और “वंदे मातरम्” पर शिर्क क्यों?
सबसे बड़ी विडंबना
जो लोग “वंदे मातरम् = पूजा” कहते हैं,
वही लोग “या हुसैन”, “अली मौला” के नारे लगाते वक़्त मातम करते हैं।
क्या वो भी शिर्क नहीं?
निष्कर्ष: बीच का रास्ता है या नहीं?
वंदे मातरम् को ज़बरन गले उतारना सही नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी साफ़ कहा – गाना अनिवार्य नहीं।
लेकिन इसे “शिर्क” बताकर खारिज करना और भी गलत है।
भारत माता कोई देवी नहीं, एक भाव है।
जैसे कोई अपनी माँ से कहता है “माँ तुझे सलाम” – वो पूजा नहीं, प्रेम है।
अगर कोई खड़ा होकर सम्मान दे सके, गा न सके – कोई दिक्कत नहीं।
लेकिन “मर जाएँगे, गाएँगे नहीं” और “जिहाद होगा” का नारा लगाना?
ये देश के साथ खड़ा होना नहीं,
ये 1947 की दो-क़ौमी नज़रिए की वापसी है।
वंदे मातरम् कोई मज़हबी मंत्र नहीं।
ये आज़ादी का तराना है।
जिसने इसे गाया, उसने अंग्रेजों को ललकारा।
जिसने इसे काटा, उसने तुष्टिकरण किया।
और जिसने इसे “शिर्क” कहा, उसने आज फिर वही विभाजन की लकीर खींच दी।
सवाल सिर्फ़ एक गीत का नहीं।
सवाल ये है – 78 साल बाद भी हम एक राष्ट्र बन पाए हैं या नहीं?
वंदे मातरम्। (गा नहीं सकते तो कम से कम सम्मान तो कर लो।)





