भारत में इस्लाम कैसे फैला — सुबुक्तगीन

भारत में इस्लाम कैसे फैला — सुबुक्तगीन

 

यह सच है कि अरब लोग भारत के पहले मुस्लिम आक्रमणकारी थे, जिसकी चर्चा पिछले लेख “मोहम्मद बिन कासिम” में हम कर चुके हैं। फिर भी उनका आक्रमण भारत के इतिहास में केवल एक प्रारंभिक घटना ही बन सका था। अरबों द्वारा आरंभ किया गया कार्य तुर्कों ने आगे बढ़ाया।

आठवीं और नौवीं शताब्दियों में तुर्कों ने बगदाद के खलीफा की शक्ति छीन ली। तुर्क बड़े लड़ाकू और खूँखार लोग थे। वे धन और स्त्रियों के लोभी होने के साथ-साथ अपने साम्राज्य का विस्तार भी करना चाहते थे।

अलप्तगीन पहला तुर्क आक्रमणकारी था, जिसका संबंध मुसलमानों की भारत-विजय की कहानी से है। वह बुखारा के शासक अब्दुल मलिक का गुलाम था। अपनी मेहनत से वह “हबीब-उल-हज्जाज” के पद पर नियुक्त हुआ। 956 ई. में उसे खुरासान का शासन-भार सौंपा गया।

962 ई. में अब्दुल मलिक की मृत्यु के बाद उसके भाई और चाचा में गद्दी के लिए संघर्ष हुआ। अलप्तगीन ने उसके चाचा की मदद की, लेकिन अब्दुल मलिक का भाई मंसूर गद्दी पाने में सफल हुआ। इन परिस्थितियों में अलप्तगीन ने अपने 800 निजी सैनिकों के साथ अफगान प्रदेश के गजनी में निवास किया और इस शहर तथा इसके पड़ोसी क्षेत्रों पर अधिकार स्थापित किया।

977 ई. में अलप्तगीन की मृत्यु के बाद राज्य के लिए फिर संघर्ष हुआ। अंततः सुबुक्तगीन गजनी का शासक बन गया। वह आरंभ में एक गुलाम था, जिसे तुर्किस्तान से बुखारा लाया गया था। अलप्तगीन ने उसे खरीद लिया था और उसकी योग्यता तथा तेज़ बुद्धि देखकर एक के बाद एक उच्च पदों पर नियुक्त किया। बाद में अलप्तगीन ने अपनी बेटी का विवाह भी सुबुक्तगीन से कर दिया।

गद्दी पर बैठने के बाद सुबुक्तगीन ने अपने आक्रमणों का आरंभ किया, जिससे वह पूर्वी संसार में प्रसिद्ध हुआ। उसने सीस्तान और लमगान को जीत लिया। 964 ई. में कई वर्षों के निरंतर युद्ध के बाद उसने खुरासान के प्रांत को भी जीत लिया।

सुबुक्तगीन अत्यंत लालची और विस्तारवादी मानसिकता का था। इसलिए उसने अपने ध्यान को धन और मंदिरों-मूर्तियों से परिपूर्ण भारत देश की ओर केंद्रित किया।

उसकी पहली भिड़ंत शाही वंश के राजा जयपाल से हुई, जिसका राज्य सरहिंद से लमगान (जलालाबाद) और कश्मीर से मुल्तान तक फैला हुआ था। 986–87 ई. में सुबुक्तगीन ने पहली बार भारत की सीमा में प्रवेश किया और अनेक किलों व नगरों को जीत लिया — “जिनमें उससे पहले गैर-मुसलमानों के अलावा और कोई नहीं रहता था, और जिन्हें मुसलमानों के घोड़े और ऊँटों ने कभी अपवित्र नहीं किया था।”

जयपाल यह अपमान सहन नहीं कर सका। उसने अपनी सेना इकट्ठी की और लमगान की घाटी की ओर बढ़ा, जहाँ सुबुक्तगीन और उसका पुत्र महमूद गजनवी उपस्थित थे। युद्ध कई दिनों तक चलता रहा। जयपाल की सेना कमजोर पड़ने लगी, तब उसने संधि का प्रस्ताव भेजा।

सुबुक्तगीन संधि के लिए तैयार हो गया, किंतु महमूद गजनवी ने कहा कि इस्लाम और मुसलमानों के सम्मान के लिए युद्ध बंद नहीं होना चाहिए। उसने अपने पिता से कहा —

“संधि के लिए आपको झुकना और प्रार्थना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि आप सर्वोच्च हैं और अल्लाह आपके साथ है। वह कभी आपको हारने नहीं देगा।”

प्रारंभिक पराजय के बाद भी जयपाल ने यह संदेश भेजा —

“हिन्दू किस प्रकार अपने प्राणों को हथेली पर रखकर युद्ध में कूद पड़ते हैं, यह तुम देख चुके हो। यदि तुम अब भी हमारे संधि प्रस्ताव को लूट के सामान, भेंट, हाथी और बंदी पाने की आशा में अस्वीकार करते हो, तो हमारे लिए यही एकमात्र मार्ग रह जाता है कि हम दृढ़ संकल्प करके अपनी सम्पत्ति का नाश करें, हाथियों को अंधा कर दें, अपने परिवार व बच्चों को अग्नि में फेंक दें, और स्वयं तलवार-भालों से एक-दूसरे पर आक्रमण कर दें। इसके बाद तुम्हारे लिए केवल पत्थर, कूड़ा-करकट, लाशें और बिखरी हुई अस्थियाँ ही शेष रह जाएँगी।”

यह संदेश मिलने के बाद सुबुक्तगीन ने संधि स्वीकार कर ली। जयपाल ने भेंटस्वरूप 10 लाख दिरहम, 50 हाथी और कुछ नगर व किले देने का वचन दिया। संधि के पालन का विश्वास दिलाने हेतु उसने अपने दो प्रतिनिधियों को सुबुक्तगीन के पास भेजा।

महमूद गजनवी के मंत्री अल-उतबी ने “तवारीख-ए-यामिनी” में लिखा है —

“सुल्तान अमीर लामघान नामक नगर की ओर बढ़ा, जो अपनी महान शक्ति और अपार संपत्ति के लिए प्रसिद्ध था। उसने उसे जीत लिया और निकट के स्थानों पर, जहाँ गैर-मुस्लिम अर्थात ‘काफ़िर’ लोग बसते थे, आग लगा दी। मूर्तिधारी मंदिरों का ध्वंस किया और उन्हें मस्जिदों में परिवर्तित कर दिया। वह आगे बढ़ा, अन्य नगरों को जीता और वहाँ के हिंदुओं का वध किया तथा इस्लाम की महिमा बढ़ाई।”

कहा जाता है कि जब जयपाल संकट से कुछ हद तक मुक्त हुआ, तो उसने संधि की शर्तों का उल्लंघन कर दिया और सुबुक्तगीन के अधिकारियों को बंदी बना लिया। इससे क्रोधित होकर सुबुक्तगीन बदला लेने के लिए पुनः लौटा और जयपाल के सीमावर्ती प्रदेशों को नष्ट कर दिया। उसने लमगान नगर पर अधिकार कर लिया।

जब जयपाल ने देखा कि उसके सरदार गिद्धों और बाघों का भोजन बन रहे हैं और उसकी शक्ति क्षीण हो रही है, तब उसने फिर से मुसलमानों से युद्ध करने का प्रण लिया। 991 ई. में उसने अजमेर, कालिंजर और कन्नौज के शासकों का संघ बनाया और एक लाख से भी अधिक सैनिकों के साथ मुसलमानों का सामना करने गया।

भयंकर युद्ध के बाद हिंदू राजाओं की सेना पराजित होने लगी। अंततः राजा जयपाल ने अपनी दूरवर्ती प्रदेशों की श्रेष्ठ वस्तुएँ भेंटस्वरूप देने का वचन दिया, इस शर्त पर कि मुसलमान उनके सिर की चोटी (शिखा) न काटें।

सुबुक्तगीन को 200 युद्ध-हाथियों सहित भारी मात्रा में लूट का सामान प्राप्त हुआ। जयपाल ने अनेक भेंटें दीं और अपनी हार स्वीकार कर ली। सुबुक्तगीन ने पेशावर में 10,000 घुड़सवारों सहित अपना एक अधिकारी नियुक्त किया।

997 ई. में सुबुक्तगीन की मृत्यु हो गई। वह अपने पुत्र महमूद गजनवी के लिए एक विशाल और सुसंगठित साम्राज्य छोड़ गया।

इस प्रकार तुर्क सम्राट सुबुक्तगीन ने जयपाल को पराजित कर भारत के कुछ क्षेत्रों पर इस्लामी सत्ता स्थापित की।