इस्लामी फ़िक़्ह (कानून) में सर्वसम्मति: धर्मत्यागी की सज़ा मौत

इस्लामी फ़िक़्ह (कानून) में सर्वसम्मति: धर्मत्यागी की सज़ा मौत

चारों सुन्नी फ़िक़्ही मज़हबहन्फ़ी, मालिकी, शाफ़ई, हनबली — और शिया फ़िक़्ह इस बात पर सहमत हैं कि पुरुष धर्मत्यागी को मार डालना चाहिए।

इमाम नववी (शाफ़ई) अपनी किताब मिन्हाज अत-तालिबीन में लिखते हैं:

“धर्मत्याग की सज़ा मौत है, लेकिन उसे तीन दिन का मौका तौबा के लिए दिया जाए।”

इब्न क़ुदामह (हनबली) अपनी किताब अल-मुग़नी में कहते हैं:

“अगर धर्मत्यागी तौबा न करे, तो उसे मार डालना अनिवार्य है।”

यहाँ तक कि अपेक्षाकृत नरम माने जाने वाले हन्फ़ी स्कूल में भी अल-हिदाया के अनुसार पुरुष धर्मत्यागी को मारा जाता है और महिला को जेल में रखा जाता है जब तक वह तौबा न करे।

इस्लाम Q&A फ़तवा 20327 कहता है:

“अधिकांश विद्वानों की राय है कि धर्मत्याग की सज़ा फांसी है… यही इमाम अहमद बिन हम्बल और शाफ़ई की राय थी।”

सऊदी अरब की स्थायी फतवा समिति (फ़तवा 696) ने भी कहा:

“यदि धर्मत्यागी तौबा न करे, तो उसे मार डालना चाहिए।”

ऐतिहासिक उदाहरण: अबू बक्र के रिद्दाह युद्ध

खलीफ़ा अबू बक्र (632–634 ईस्वी) द्वारा लड़े गए रिद्दाह युद्ध इस्लाम के इतिहास में धर्मत्याग की सज़ा का सबसे बड़ा उदाहरण हैं।
कई अरब कबीलों ने इस्लाम छोड़ दिया या ज़कात देने से इंकार किया, तो अबू बक्र ने उन्हें धर्मत्यागी घोषित कर दिया और उन पर युद्ध छेड़ दिया।

सहीह बुख़ारी 7284–7285 में अबू बक्र के शब्द दर्ज हैं:

“अल्लाह की क़सम, मैं उन लोगों से लड़ूँगा जो नमाज़ और ज़कात में फ़र्क़ करते हैं।”

अल-तबरी (तारीख़ अल-तबरी, खंड 2) में दर्ज है कि इन युद्धों में हज़ारों लोग मारे गए और बचे हुए लोगों को जबरन इस्लाम में वापस लाया गया।
यह धर्म की रक्षा नहीं, बल्कि राजनीतिक सत्ता बनाए रखने का साधन था।

आलोचना: एक ज़बरदस्ती पर आधारित सिद्धांत

इस्लाम के धर्मत्याग कानून यह साबित करते हैं कि इस्लाम समर्पण की मांग करता है, न कि विश्वास की।
धर्मत्याग की सज़ा के रूप में मौत का आदेश देकर यह धर्म को भय पर टिकाता है।
क़ुरआन 2:256 (“धर्म में कोई ज़बरदस्ती नहीं”) जैसे दावे इस वास्तविकता से टकराते हैं।

आज भी ईरान, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान जैसे देशों में धर्मत्याग या “कुफ़्र” के आरोप में लोगों को मारा जाता है — कभी अदालतों द्वारा, तो कभी भीड़ द्वारा।
यह सब इन हदीसों और फतवों की विरासत का परिणाम है।

निष्कर्ष: सुधार नहीं, अस्वीकार की ज़रूरत

क़ुरआन 4:89, सहीह बुख़ारी 6922, और फ़तवा 20327 जैसे स्रोत स्पष्ट रूप से धर्मत्याग की सज़ा मौत बताते हैं।
जब तक इन प्रामाणिक ग्रंथों को दिव्य सत्य माना जाएगा, सुधार असंभव है।
सच्ची आज़ादी के लिए ज़रूरी है कि इन पुरातन हिंसक आदेशों को पूरी तरह अस्वीकार किया जाए, न कि उन्हें आधुनिक रूप दिया जाए।
विश्वास एक विकल्प होना चाहिए, जंजीर नहीं।

संदर्भ (References):

  • क़ुरआन 4:89, 2:217, 2:256 (सहीह इंटरनेशनल अनुवाद)

  • तफ़सीर इब्न कसीर और तफ़सीर अल-जलालैन

  • सहीह बुख़ारी 6922, 3017, 7284–7285

  • सहीह मुस्लिम 1676

  • सुन्नन अबू दाऊद 4350

  • अल-तबरी, तारीख़ अल-तबरी, खंड 2

  • इस्लाम Q&A फ़तवा 20327; सऊदी स्थायी फतवा समिति फ़तवा 696

  • मिन्हाज अत-तलिबीन (नववी), अल-मुग़नी (इब्न क़ुदामह), अल-हिदाया (हन्फ़ी)