मस्जिद में जुम्मा : अल्लाह की तवक्कुल की तकरीर और इंसानों की झोली

मस्जिद में जुम्मा : अल्लाह की तवक्कुल की तकरीर और इंसानों की झोली

जुम्मे का खुत्बा : अल्लाह ही रज़्ज़ाक है, उसी से मांगो

 

जुम्मे की नमाज़ से पहले इमाम साहब ने लम्बी तकरीर की।

“अल्लाह पर पूरा यक़ीन रखो। दुनिया में जो कुछ भी मिलता है, अल्लाह देता है। घर में नमक ख़त्म हो जाए तो भी अल्लाह से मांगो, किसी इंसान से मत मांगो। अल्लाह के सिवा कोई रिज़्क देने वाला नहीं। हम सब उसके दर के फ़कीर हैं।”

 

लोग सर हिलाते रहे। अमीन-अमीन की आवाज़ें गूँजती रहीं। सबको लगा कि आज तो बड़ा पाकीज़ा खुत्बा है।

 

फिर अज़ान हुई, खुत्बा हुआ, दो रकअत फर्ज़ पढ़ी गईं।

 

और जैसे ही सलाम फेरा…

 

नमाज़ ख़त्म, असली खेल शुरू

 

नमाज़ ख़त्म होते ही मंज़र पलट गया।

जिन इमाम साहब ने अभी कहा था कि “अल्लाह के सिवा कोई देने वाला नहीं”, उनके चेले-चपाटे टोपियाँ और साफ़े लेकर लाइन में लग गए।

 

  •  एक साहब मस्जिद की तामीर के नाम पर चंदा मांगने लगे।
  • दूसरा इमाम साहब की तनज़ख्वाह के लिए।
  • तीसरा लाइट बिल, वज़ूखाने की टंकी, कालीन… हर चीज़ के लिए अलग-अलग साफ़ा।

 

और सबसे बड़ी बात – इमाम साहब ने दुआ के लिए हाथ तक नहीं उठाए जब तक सारे साफ़े उनके बराबर में न रख दिए गए।

जैसे ही आख़िरी साफ़ा आया, इमाम साहब ने तिरछी नज़र से देखा – हरी झंडी मिल गई – फौरन हाथ उठा लिए और दुआ शुरू :

 

“ऐ अल्लाह! तू ही रज़्ज़ाक है, तू ही देने वाला है, तेरे सिवा कोई नहीं देता…”

 

हाथी के दाँत : खाने के और, दिखाने के और

 

पाँच मिनट पहले जो बात कही गई थी, उसी के उलट अमल हो रहा था।

अल्लाह से मांगने की तकरीर देकर, अल्लाह को बीच में रखकर आपकी जेब से पैसे निकलवाए जा रहे थे।

यह कोई नया नज़ारा नहीं। हर जुम्मे को देखते हैं। बस आज किसी ने खुलकर लिख दिया।

 

सच्चाई यह है…

 

  •  अगर सच में यक़ीन है कि अल्लाह ही देता है तो इमाम साहब की तनज़ख्वाह भी अल्लाह देगा, मस्जिद भी अल्लाह बनवा देगा।
  • फिर हर जुम्मे को नमाज़ के ठीक बाद चंदे की दुकान क्यों सजती है?
  • दुआ भी चंदा पूरा होने के बाद ही क्यों होती है?

 

यह मज़हब का व्यापार है।

अल्लाह का नाम लेकर, तवक्कुल का ढोंग करके, लोगों की भावनाओं का शोषण करके बिना मेहनत का चंदा वसूलना – यही इनका धंधा है।

 

और हम?

हम हर जुम्मे को 10-20-50-100 डालकर खुशी-खुशी यह साबित करते रहते हैं कि हम अभी भी बेवक़ूफ़ बनने को तैयार हैं।

 

अगर सच में अल्लाह पर यक़ीन है, तो अगले जुम्मे साफ़े देखकर मुस्कुरा देना और जेब पर हाथ रख लेना।

बस इतना कर लिया तो सारा ढोंग अपने आप ख़त्म हो जाएगा।

 

क्योंकि जिस दिन लोग देने बंद कर देंगे, उसी दिन ये “अल्लाह ही देने वाला है” वाला खुत्बा भी बदल जाएगा।

फिर शायद नया खुत्बा आएगा – “इंसान को मेहनत करनी चाहिए” वाला।