हमने इस्लामी किताबों में गहरी तलाश की तो एक ऐसी हदीस मिली जो इस्लाम के “पवित्रता”, “ग़ीरत” और “ज़िना की सख़्त सज़ा” वाले दावों की पोल खोल देती है।
सुनन अबू दाऊद, हदीस 2049 (सहीह अल्बानी): अब्दुल्लाह इब्न अब्बास से रिवायत है कि एक शख़्स नबी ﷺ के पास आया और बोला: “ऐ अल्लाह के रसूल! मेरी बीवी किसी भी मर्द का हाथ रोकती नहीं (यानी हर आने-जाने वाले के साथ ज़िना कर लेती है)।” नबी ﷺ ने फरमाया: “उसे तलाक दे दो।” उसने कहा: “मैं उससे मोहब्बत करता हूँ (वह बहुत खूबसूरत है)।” नबी ﷺ ने फरमाया: “तो फिर उससे मजा लेते रहो।”
यह हदीस सिर्फ इब्न अब्बास से नहीं, बल्कि मुहम्मद के गुलाम हिशाम और सहाबी जाबिर बिन अब्दुल्लाह से भी इब्न कसीर ने अपनी किताब में दर्ज की है। इब्न कसीर ने लिखा: “एक शख्स ने कहा: मेरी बीवी किसी लामिस (यानी ज़िना करने वाले) का हाथ नहीं रोकती। नबी ﷺ ने कहा: तलाक दे दो। उसने कहा: मुझे उससे मोहब्बत है। नबी ﷺ ने फरमाया: **फिर उससे फायदा उठाते रहो।”
“लामिस” (لمس) शब्द का मतलब कुरान में भी ज़िना ही है। कुरान 2:237 में “तुमने उन्हें छुआ नहीं” का मतलब ही “तुमने उनके साथ जिमा नहीं किया” है। इब्न कसीर ने इस आयत की तफ्सीर में लिखा कि यहाँ “छूना” से मुराद دخول (जिमा) है। इसी तरह कुरान 4:43 में भी “औरतों को छूने” का मतलब जिमा है, जिससे जुनुब होना पड़ता है।
तो बात साफ है: बीवी हर किसी के साथ सोती है, लेकिन अगर वह सुंदर है तो उसे रखो और **“मजा लेते रहो”।
इस फरमान से इस्लाम की पोल खुलती है
- पहला विरोधाभास एक तरफ ज़िना करने वाली शादीशुदा औरत को पत्थर मार-मार कर हलाक करने का हुक्म है। दूसरी तरफ, अगर वही औरत खूबसूरत है तो पति से कहा जा रहा है कि उसे तलाक मत दो, बस अपनी शहवत पूरी करते रहो। यह ग़ीरत-ए-इस्लाम है या सिर्फ शहवत?
- दूसरा विरोधाभास हादिस-ए-इफ्क में आयशा पर इल्ज़ाम लगा तो मुहम्मद ने सूरह नूर आयत 26 नाज़िल करवाई: “पाक औरतें पाक मर्दों के लिए हैं।” लेकिन अब वही मुहम्मद उस शख्स को कह रहे हैं कि गंदी औरत से भी मजा लेते रहो? तो आयत 26 सिर्फ आयशा के लिए थी?
- तीसरा विरोधाभाससुनन निसाई 2562 में मुहम्मद ने फरमाया: “तीन लोगों पर क़यामत के दिन अल्लाह नज़र भी न करेगा… और दय्यूस (जिसकी बीवी ज़िना करे और वह बर्दाश्त करे)।” तो एक जगह दय्यूस को जहन्नमी कहा, दूसरी जगह उसे यही करने की इजाज़त दी?
- बच्चे की नसब का क्या होगा? मुसलमान कहते हैं कि ज़िना की सज़ा इसलिए सख्त है ताकि बच्चे का नसब खराब न हो। लेकिन यहाँ तो पति को कहा जा रहा है कि दूसरे मर्द से पैदा हुए बच्चे को भी अपना नाम दो और अपनी दूसरी बीवियों-बेटियों के साथ पालो। यह वही बच्चा फिर अपनी सगी बहनों के लिए ग़ैर-महरम होगा। नसब बचाने का दावा कहाँ गया?
इस्लामी मुआफ़ी की कोशिशें
पहला बहाना: यह हदीस सिर्फ बांझ औरत के बारे में है। जवाब: हदीस के किसी भी रिवायत में “बांझ” का ज़िक्र नहीं। अबू दाऊद ने जिस बाब में रखा, वह उसका अपना इज्तिहाद है, वह्य नहीं।
दूसरा बहाना: चार गवाह न होने से पत्थर नहीं मार सकते थे। जवाब: बात पत्थर मारने की नहीं, तलाक की थी। नबी ने खुद पहले तलाक का हुक्म दिया था, फिर शहवत के लिए वापस ले लिया।
तीसरा बहाना: हनफी किताब दुर्र-ए-मुख्तार (जिल्द 2, किताबुन निकाह) में लिखा है कि ज़िना करने वाली से निकाह जायज़ है, और सूरह नूर आयत 3 मंसूख हो गई। हाँ, हनफी उलेमा खुद क़ुबूल करते हैं कि यह हदीस सूरह नूर की आयत को मंसूख कर देती है। यानी अल्लाह का हुक्म भी शहवत के सामने हार गया!
नतीजा
यह हदीस (सुनन अबू दाऊद 2049) साबित करती है कि इस्लाम में नैतिकता नहीं, बस शहवत और मर्द की सुविधा प्रधान है। एक तरफ औरत को ज़िना पर पत्थर मारने का नारा, दूसरी तरफ खूबसूरत व्यभिचारी बीवी को “मजा लेते रहो” का फरमान।
यह दैवीय हिदायत नहीं, एक इंसान की शहवत और उसकी कमज़ोर याददाश्त का नतीजा है।





